कई बार ऐसा लगता है, लड़की होना ही गुनाह है। बचपन से शुरू होती है, एक जंग अपनी अस्मिता को बचाने की। सबसे पहले तो सांसों की जंग कि उसे पैदा होने से पहले ही मार तो नहीं दिया जाएगा? पैदा होने के बाद भी जंग जारी है, यह समाज उसे स्वतंत्रता से जीने देगा या नहीं, जंग आगे भी जारी है , तुम लड़की हो यह एहसास जगाने की, क्योंकि लड़कियां कभी अकेले कहीं नहीं जाती। अकेली लड़की कभी सुरक्षित नहीं होती, चाहे वह खुद के घर में अकेली हो या बाहर। हर बार लड़की को यह जताया जाता है, यह एहसास कराया जाता है कि तुम कमजोर हो, तुम्हें एक मर्द की जरूरत है। बिना मर्द के तुम सुरक्षित नहीं, जबकि वास्तविकता तो यह है कि नर की वजह से ही तो नारी की अस्मिता का हनन हो रहा है। आज यह नौबत ही क्यों आई है कि एक लड़की को हर पल डर सताता रहता है, एक खौफ मन में रहता है, न जाने किस भेष में रावण घात लगाए बैठा है। तो बताओ इसमें गलती किसकी ? लड़की की या उस समाज, वहां के लोगों की , उस सोच की, जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित वातावरण नहीं दे सकते। कुछ चंद लोगों की घटिया करतूत की वजह से हमने अपनी बेटियों के पैरों में बेड़िया बांध