आपदाएँ !! चाहे वो बाढ़ हो, तूफान हो, या भूकंप प्रकृति का प्रकोप होती है। हम अपना गुस्सा कैसे निकलते हैं वैसे ही प्रकृति भी अपना ग़ुस्सा इन्ही आपदाओं के जरिए निकलती है। अगर प्रकृति में जुबान होती तो वो शायद ये बयां करती की तुम मनुष्यों ने मुझ पर कितना अत्याचार किया है। कितनी तकलीफ़े दी है कितना दर्द दिया हैं................. असहनीय वेदना !! पर वाह री प्रकृति! तूने मनुष्यो को सबक सीखने का क्या नायाब तरीका ढूंढ निकाला है। लेकिन तेरी इन आपदाओं ने ना जाने कितने निरपराधों को मौत के घाट उतारा है। प्रकृति हर साल अपने रौद्र रूप में आकर अपनी अहमियत का अहसास करना चाहती है । लेकिन हम अहंकारी मनुष्य आपदाओं के जाते ही सब भूल जाते है और फिर से प्रकृति का दोहन शुरू कर देते हैं। कितने स्वार्थी है हम। अभी हाल में हमने कोरोना वाइरस का प्रकोप झेला उससे उबरे ही थे की बाढ़ ने आकर घेर लिया। अब प्रकृति इतनी भी क्रूर नहीं। उसने जल्दी ही अपने प्रकोप को शांत कर दिया और परिस्थितियॉ सामान्य हो रही है। और फिर से एक नया सूरज निकल रहा है, भोर हो रह