कई बार ऐसा लगता है, लड़की होना ही गुनाह है।
बचपन से शुरू होती है, एक जंग अपनी अस्मिता को बचाने की। सबसे पहले तो सांसों की जंग कि उसे पैदा होने से पहले ही मार तो नहीं दिया जाएगा? पैदा होने के बाद भी जंग जारी है, यह समाज उसे स्वतंत्रता से जीने देगा या नहीं, जंग आगे भी जारी है , तुम लड़की हो यह एहसास जगाने की, क्योंकि लड़कियां कभी अकेले कहीं नहीं जाती। अकेली लड़की कभी सुरक्षित नहीं होती, चाहे वह खुद के घर में अकेली हो या बाहर। हर बार लड़की को यह जताया जाता है, यह एहसास कराया जाता है कि तुम कमजोर हो, तुम्हें एक मर्द की जरूरत है। बिना मर्द के तुम सुरक्षित नहीं, जबकि वास्तविकता तो यह है कि नर की वजह से ही तो नारी की अस्मिता का हनन हो रहा है। आज यह नौबत ही क्यों आई है कि एक लड़की को हर पल डर सताता रहता है, एक खौफ मन में रहता है, न जाने किस भेष में रावण घात लगाए बैठा है। तो बताओ इसमें गलती किसकी ? लड़की की या उस समाज, वहां के लोगों की , उस सोच की, जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित वातावरण नहीं दे सकते। कुछ चंद लोगों की घटिया करतूत की वजह से हमने अपनी बेटियों के पैरों में बेड़िया बांध दी है। ये कहां तक न्यायोचित हैं ?
आखिर क्यों -
एक स्त्री को
बचपन से सिखाया जाता है
बचपन से बताया जाता है
कि
तुम एक नारी हो
नर के बिना ना सम्मान पाओगी
ना खुद की रक्षा कर पाओगी
कि
तुम एक लड़की हो
मर्यादा में रहो,
एकांत में तुम कहीं भी सुरक्षित नहीं
ना अंदर, ना बाहर
खुद के घर में भी नहीं ।
भले ही दुनिया
कितनी ही आगे बढ़ जाए।
लेकिन एक लड़की आज भी अपने अस्मिता की रक्षा के लिए जंग लड़ रही है।
वक्त के हर मोड़ पर
एक स्त्री ही अग्नि परीक्षा
क्यों दें ?
हर मुश्किल वक्त में वो
पुरुष पर ही निर्भर
क्यों हो?
हर बार स्त्री ही
अपने सपनों की कुर्बानी
क्यों दे ?
लोगों और समाज की
रूढ़िवादी सोच
क्या कभी किसी लड़की
को आगे बढ़ने देगी?
इस सवाल के जवाब का इंतजार हर वो लड़की कर रही है, जिसमें हुनर है, काबिलियत है लेकिन लड़की होने की वजह से हर बार उसे समझौता करना पड़ता है, अपनी अस्मिता के लिए।
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